जब धीरे धीरे खिड़की से रात चली आयी,
और सन्नाटे ने अपनी चादर बिछाई,
तब कोई नही था मेरे पास,
एअक छोटा सा बल्ब था साथ ।
दरवाजे कि कुण्डी लगी थी,
मेरी डायरी भी टेबल पे पडी थी,
टेप रिकॉर्डर धीरे धीरे चल रह था,
कि इतने मै मै बत्ती चली गयी,
रात का एहसास भी ज्यादा होने लगा,
सन्नाटा भी अपनी गाथा कहने लगा,
ना कुण्डी खटकी ना आहट हुई,
नजाने कहॉ से वो चले आये,
इतने अँधेरे मै भी साफ नजर आये,
हडबडी मै हम उन्हें बिठा भी ना पाये,
और चले गए अपनी राम कहानी सुनाये...
आज ये हुआ - आज वो हुआ
हमने तुम्हारे बारे मै ये सोचा और ये किया,
वो थोडा मुस्कराये,
हमने भी अपने दात दिखाए,
कि
कि इतने मै बत्ती आ गयी ...
5/2/1995
26 May, 2007
वो चले आये
Posted by
Yatish Jain
at
3:50 PM
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6 comments:
वाह क्या कविता है..आप कविता में हास्य ढूँढ रहे थे क्या? मगर बहुत सुन्दर भाव है हमे थोड़ी हँसी भी आई जैसे इस पन्क्ति पर...
हमने भी अपने दात दिखाए,
कि
कि इतने मै बत्ती आ गयी
बहुत सुन्दर!
सुनीता(शानू)
कम शब्दों में सुंदर बात कहना तो आप से और रचना जी से सीखा जाये...
कम शब्दों में सुंदर बात कहना तो आप से और रचना जी से सीखा जाये...
wah yatish ji baat ko itni aasani se sunder shabdon main baandha hai
ki padhkar laga jaise hum hi waha ho
sach kahte hain shayad kuch apni si kavita hi man ko chhu pati hai
likhte rahe
bahut badhiya..kya shabd chune hain aapne.
यतीश भाई,
पहले तो बहुत बहुत शुक्रिया की आप मेरे ब्लॉग पर आये और अपनी कीमती टिपण्णी दी!
आपकी ये रचना पढ़ के बहुत अच्छा लगा बहुत दिनों के बाद एक ऐसे रचना पढ़ी है जो एकदम तरोताज़ा कर देती है!
आप अपना ईमेल एड्रेस मुझे भेज दीजियेगा मैं आपको अपनी मित्र सूची में शामिल कर लूँगा!
मेरा ईमेल एड्रेस है:
surender.chawla@gmail.com
शुक्रिया!
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